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Thursday, April 22, 2010

हरी वर्दी को सलाम......दुआओं के साथ !


''सिंह सदन'' के कई स्तंभो से तार्रुफ़ के बाद यह लाजिमी है कि इस फलक को ... कुछ और विस्तार दिया जाये, कुछ और लोगों से मिलवाया जाये . यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि '' सिंह सदन '' के हर एक सदस्य में कुछ न कुछ खूबियाँ हैं. मगर इसके बाद भी कुछ लोगों में ऐसी खूबियाँ हैं कि उनका नाम उन खूबियों का पर्याय बन चुका है..... आज हम नजर डालेंगे ऐसे ही एक मिलनसार व्यक्तित्व से......... इससे पहले कि इस शख्स के बारे में और विस्तार से लिखा जाए आइए नज़र डालते उनके व्यक्तित्व के उजले पहलू पर........!

" सामान्य परिवार में उनका जन्म हुआ......श्रम की महत्ता को उन्होंने पहचाना.......अपने बल पर सरकारी नौकरी पाई....... ...सामाजिक सरोकारों/रिश्तों को हर स्तर पर उन्होंने निभाया.......घर का हर त्यौहार चाहे वो दीवाली हो ,होली हो या कि रक्षा बंधन........हर त्यौहार उनके बिना अधूरा लगता है............हर घरेलू आयोजन उनके बिना अधूरा है..........अच्छे पति-भाई-पिता-मित्र के रूप में उनकी पहचान है..................परंपरागत व्यंजनों के सबसे बड़े शौकीन हैं............. अब इसके बाद उनकी शख्सियत के बारे में बताने को क्या कुछ बचता है........शायद नहीं. दावे के साथ कह सकता हूँ आप समझ ही गए होंगे कि मैं किसी और कि नहीं ...... अपने बड़े बहनोई/ जीजा श्री राकेश चंद की बात कर रहा हूँ.

1962 में जन्मे राकेश चंद (भगवान जाने उनका नाम राकेश चंद क्यों है.....राकेश चन्द्र क्यों नहीं ?) , नाम के उच्चारण की इस अपूर्णता के बावजूद उनका हर पहलू उनके पूर्ण होने की सहज उदघोषणा करता है. 1979 में आर्मी ज्वाईन की...........मुश्किल ठिकानों पर रहकर देश सेवा करते रहे.....

.... पंजाब,जम्मू-कश्मीर,नागालैंड, आसाम, उत्तरप्रदेश की विभिन्न रेजीमेंटों में अपनी नौकरी करने के बाद वे सम्प्रति मुम्बई में हैं. हर दम मुस्कुराने वाले इस शख्स का मैं इसलिए बहुत आदर करता हूँ कि उन्होंने अपने छोटे भाइयों को अपने सीमित संसाधनों के वाबजूद हर तरीके से संबल दिया, पढाया लिखाया............अपना परिवार भी उन्ही कम संसाधनों में चलाया. अपने बच्चों के पालन -पोषण में समझौता कर लिया मगर किसी सामाजिक उत्तरदायित्व में आंच न आने दी.........उनके इस आन्दोलन में उनकी पत्नी यानि उषा दी ने हर कदम साथ दिया. जब 1981 में उनकी शादी उषा दी से हुई थी तो मुझे याद है कि मैं बहुत छोटा था. जब भी मेरी उनसे मुलाकात होती थी तो वे मुझे बहुत छेड़ा करते थे........"मार गयी मुझे तेरी जुदाई....." वाला गाना जब वे अपनी ऊँगली से चुटकियाँ बजाते हुए सुनाते थे तो मैं अपने जीजा की इस अदा पर रीझ सा जाता था. खैर वक्त गुज़रता गया जीजा और हमारे सम्बन्ध मजबूत होते गए..........! आर्मी की कैंटीन से कुछ सामान जब वे हमारे लिए लाते थे और हमें गिफ्ट करते तो हमें बहुत अच्छा लगता था .......पहली बार रेडियम वाली टाटा की घड़ी जब वे लाये और रात के अँधेरे में उसकी चमक उन्होंने हमें दिखाई तो हमारा रोमांच किस पायदान पर था, शायद उसका वर्णन आज संभव नहीं है.......बस इतना समझ लीजिये कि हम सब भाई उस घडी की चमक को को रात में रजाई के नीचे घंटों देखा करते थे.........(हा... हा..... हा.......) !

जीजा के साथ हम सबके साथ जो सम्बन्ध थे वे धीरे धीरे दोस्ताना होते गए.........आज हम सब भाइयों चाहे मैं होऊं या पंकज या प्रमोद भैया या उमा, श्यामू, जोनी या पिंटू सभी से उनके रिश्ते मधुर, दोस्ताना और बहुत स्वाभाविक हैं . हर आदमी चाहे वो कितना ही बड़ा हो या कि छोटा सबको इज्ज़त देने की उनकी आदत उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर स्थापित करती है........ !

मृदु भाषी जीजा कि एक अन्य पहचान उनकी कर्मठता भी है. उनकी कर्मठता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी छोटी नौकरी से न केवल अपना घर बनाया.......बल्कि अपने भाइयों को यथा संभव नौकरी पर लगवाया. मकान निर्माण का जज्बा तो शायद उनकी रगों में बहता है.........मकान बनवाने के वे इस हद तक क्रेजी हैं कि आज भी जब भी वे दो महीने कि छुट्टी आते हैं घर बनवाने का काम निर्बाध और अखंड रूप से करते हैं........इसके अलावा रिश्ते- नातेदारियों में जाकर मेहमानी का भी लुत्फ़ उठाते हैं. देशी व्यंजनों......जैसे सर्राटा, हलुआ, मालपुआ, एस्से, गुटेटा, गुना, रसिआउर,पुरी में तो समझ लीजिये उनकी जान बसती है.....! शादी हो या कोई रस्म .......मान होने के नाते उन्हें तवज्जो मिलना स्वाभाविक है........और वे इसका पूरा आनंद भी उठाते हैं.......

......जीवन का आनंद का उठाना तो कोई उनसे सीखे. अब तो खैर मेले- नुमाइश नहीं रहे मगर अच्छी तरह याद है कि हमारे बचपन में जब हमारे शहर मैनपुरी में नुमाइश लगती थी तो वे हमें नुमाइश दिखने ले जाते थे और हमारी बहुत सी जिदों को पूरा भी करते थे. आज भी सारे सामाजिक सरोकारों को निभाते हुए बड़ी आसानी से अपने व्यक्तित्व की गंभीरता को बचाए हुए हैं वो अद्भुत तो है ही.........सराहनीय भी. ईश्वर से दुआ है कि जो परंपरा उन्होंने शुरू की है वो उनके तीनों बच्चे भी निभाते रहें............जीजा राकेश चंद के लिए हजारों हजार दुआएं और इस दुआओं में हम सबके हाथ खड़े हुए हैं......!

उनकी हरी वर्दी.....उजले मन और सुनहले जीवन सफ़र को सलाम करते हुए यह गीत जेहन में दस्तक दे रहा है.....

"हौसला न छोड़ कर सामना जहान का,
वो बदल रहा है देख रंग आसमान का
............यह शिकस्त का नहीं फतह का रंग है
जीत जायेंगे हम तू अगर संग है...................!"

2 comments:

SINGHSADAN said...

जीजा जी ..... वास्तव में एक शानदार शख्शियत के मालिक हैं .... उन्होंने जीवन के सही मायने समझे हैं ..... सदैव प्रसन्न और संतुष्ट रहने वाले जीजा जी .... ज़िन्दगी के हर बीत रहे लम्हे को ... भरपूर जी लेना चाहते हैं !

वे अगर सबके प्रिय हैं तो इसलिए कि ... उनका ह्रदय निर्मल है .... वे सबको खुश रखना चाहते हैं ... और इसके लिए वास्तविक प्रयास भी करते हैं ... !

नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच के इस...'' मज़बूत सेतु '' को सिंह सदन कुटुंब का सलाम ....

एक सच्ची शख्सियत का शानदार स्केच खीचने के लिए ...'' भैया '' आपको भी साधुवाद ... बधाई ...प्रणाम...!
सप्रेम ..... पंकज के. सिंह

SINGHSADAN said...

जीजा तो आइटम है....जब वे हमलोगों के बीच होते हैं तो शैतानी और शरारत जाने कहाँ से आजाती है.खूब लिखा भैया मज़ा आगया.hirdesh